पद 1
हम तौ एक एक करी जांनां ।
दोई कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिन पाहिचांनां ॥
अर्थ:- हम तो उस एक (ईश्वर) को एक ही जानते हैं।
जो उस एक (ईश्वर) को नहीं पहचानते हैं या उसे दो मानते हैं उसे नरक मिलता है।
भावार्थ:- कबीरदास जी कहते हैं कि वे सिर्फ एक ही ईश्वर को जानते हैं । वे लोगों की इस धारणा को खारिज करते हैं कि इस संसार में अनेक ईश्वर हैं। वे कहते हैं कि जो लोग यह समझते हैं कि एक से अधिक ईश्वर हैं वे नरक में जाएंगे क्योंकि उन्हे ज्ञात ही नहीं है कि पूरे संसार में एक ही ईश्वर हैं, यद्यपि उनके अनेक रूप हैं।
एकै पावन एक ही पानीं एकै जोति समांनां ।
एकै खाक गढ़े सब भांड़ै एकै कोंहरा सांनां ॥
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भावार्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि जिस तरह पूरे विश्व में एक ही हवा है, एक ही जल है और सूर्य का प्रकाश भी एक ही है भले उनके अनेक रूप हो सकते हैं। ठीक वैसे ही भगवान भी पूरे ब्रह्मांड में एक ही है जो विभिन्न अवतारों में प्रकट होते हैं। आगे कबीर दास जी कुम्हार का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि कुम्हार भी एक ही मिट्टी से विभिन्न प्रकार के बर्तन बनाता है। ठीक उसी तरह हम भी एक ही मिट्टी के बने हैं परंतु फिर भी विभिन्न जातियों, धर्मों, संप्रदायों, आदि में बनते हुए हैं जो उचित नहीं है।
जैसे बाढ़ी काष्ट ही काटै अगिनि न काटै कोई ।
सब घटि अंतरि तूँही व्यापक धरै सरूपै सोई ॥
अर्थ:- बढ़ई लकड़ी काट सकता है, परंतु अग्नि/आग को कोई नहीं काट सकता है । उसी तरह पूरे घट या विश्व में तू (भगवान) ही व्यापक है जिसने अपना रूप धरण किया हुआ है।
भावार्थ:- इन पंक्तियों के द्वारा कबीरदास जी कहते हैं कि एक लकड़हारा लकड़ी को तो आसानी से काट सकता है परंतु उसके अंदर विद्यमान अग्नि को नहीं काट सकता है। जितना भी लकड़ी को काटा जाये उसमें विद्यमान अग्नि तो रहेगी ही जो लकड़ी को काटने से नहीं जाएगी। ठीक इसी तरह, पूरी दुनिया से सबकुछ समाप्त हो सकता है परंतु ईश्वर विद्यमान रहेंगे। ईश्वर सभी जगह विभिन्न रूप में विद्यमान हैं बिडम्बना बस इस बात का है कि हम उसे पहचान नहीं पाते हैं ।
माया देखि के जगत लुभांनां काहे रे नर गरबांनां ।
निरभै भया कछू नहिं ब्यापै कहै कबीर दिवांनां ॥
अर्थ:- धन दौलत देखकर लोगों के भीतर लालच उत्पन्न होता है, मनुष्य को धन-दौलत पर गर्व नहीं करना चाहिए।
परंतु कबीर जी कहते हैं कि जो यह सोचते हैं कि धन-दौलत में कुछ नहीं रखा (ब्याप्त) है वे निडर या निर्भय होकर अपनी जिंदगी जीते हैं।
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भावार्थ:- कबीरदास जी कहते हैं कि आज कल यह आम बात हो गई है कि लोग धन-दौलत देख कर लालची हो जाते हैं, और धन-दौलत अधिक होने पर गर्व महसूस करते हैं। परंतु, वही लोग निडर या निर्भय होकर इस संसार में जीने की क्षमता रखते हैं जो यह सोचते हैं कि धन-दौलत में कुछ भी नहीं रखा है, अर्थात धन-दौलत को महत्व नहीं देते हैं । धन-दौलत की चिंता करने वाले कभी सुख और शांति की जिंदगी नहीं जी सकते हैं।
पद 2
संतो देखत जग बौराना ।
साँच कहौं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना ॥
अर्थ:- हे संतो देखो यह संसार पागल हो गया है। जब मैं सच बोलता हूँ (कि ईश्वर एक है) तो लोग मुझे मारने के लिए दौड़ पड़ते हैं और जब झूँठ बोलता हूँ लोग विश्वास करते हैं ।
भावार्थ:- कबीरदास जी संतों को संबोधित करते हुए कहते हैं हे संतों यह दुनिया पागल और भ्रमित हो गई है । जब में झूठ बोलता हूँ तो पूरी लोग खूब विश्वास करते हैं और जब मैं सच बोलता हूँ तो लोग मारने के लिए उतावले हो जाते हैं। सच लोगो को कड़वी लगती है। जब मैं यह बताता हूँ कि ईश्वर एक है तो लोग मुझे मारने के लिए दौड़ पड़ते हैं। सचमुच में यह दुनिया पागल हो गई है।
नेमी देखा धरमी देखा, प्रात करै असनाना।
आतम मारि पाखानहि पूजै, उनमें कछू नहिं गयाना ॥
अर्थ:- नियम और धर्म का पालन करने वाले प्रात: ही स्नान करके बैठ जाते हैं । और वे
अपने भीतर की आत्मा को मारकर पत्थरों की पूजा करते हैं । ऐसे लोगों में कोई ज्ञान नहीं है ।
भावार्थ:- कबीर दास जी पाखंडी संतों के बारे में कहते हैं कि नियम और धर्मों का पालन करने की ढोंग करने वाले प्रात: ही स्नान कर बैठ जाते हैं और पत्थरों की पूजा करते हैं। वे अपने भीतर की आत्मा को कभी जानने का प्रयास नहीं करते हैं और पत्थरों पर विश्वास करते हैं। कबीरदास जी ऐसे ढोंगी संतों को चेतावनी देते हुए कहते हैं कि पत्थरों की पूजा में कुछ नहीं रखा है, इससे ज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी। अगर सच में ज्ञान प्राप्त करना है तो अपने भीतर विद्यमान आत्मा को देखो और पहचानने की कोशिश करो, इसी से ज्ञान की प्राप्ति होगी और ईश्वर के दर्शन होंगे।
बहुतक देखा पीर औलिया, पढै कितेब कुराना ।
कै मुरीद तदबीर बतावैं, उनमें उहै जो ज्ञाना ॥
अर्थ:- बहुत से देखे धर्मगुरु और संत जो कुरान की किताबें पढ़ते हैं। और अपने शिष्यों को तरह-तरह के उपाय बताते रहते हैं।
भावार्थ:- कबीरदास जी कहते हैं कि उन्होने बहुत से ऐसे धर्मगुरु और संत देखे हैं जो कुरान जैसे विभिन्न धर्म ग्रंथ पढ़ते रहते हैं और अपने शिष्यों को तरह-तरह के उपाय बताते रहते हैं। परंतु इसमें कुछ भी नहीं रखा है । इन सबसे ईश्वर की प्राप्ति नहीं होगी। ईश्वर की प्राप्ति तो तभी होगी जब तुम अपने-आपको को पहचानोगे।
आसन मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना ।
पीपर पाथर पूजन लागे, तीरथ गर्व भूलाना ॥
टोपी पहिरे माला पहिरे, छाप तिलक अनुमाना ।
अर्थ :- आसन लगाकर दिखावा करके बैठ जाते हैं, और मन में बहुत घमंड पालकर रखते हैं।
पीपल और पत्थर की पूजा करते हैं, तीर्थ स्थानों का भ्रमण करके गर्व महसूस करते हैं। टोपी पहनते और माला पहनते हैं, औए माथे पर तिलक लगाकर बहुत ही अनुभवी होने का दिखावा करते हैं।
भावार्थ:- कबीरदास जी कहते हैं कि पाखंडी संत आसन लगाकर बैठने का दिखावा करते हैं और अन्तर्मन में अभिमान पाले रखते हैं। वे पीपल के पेड़ और पत्थरों की पूजा करते हैं जिसमें कुछ भी नहीं रखा है। वे विभिन्न तीर्थ यात्राएं करते हैं और अपने आपको बुद्धिमानी समझते हैं और डींगे भरते हैं। टोपी और माला पहनते हैं, और माथे पर तिलक लगाकर बहुत खुद को बहुत ही अबुभावी बताते हैं। ऐसे लोग पाखंडी होते हैं। लोगों को भ्रमित करते हैं। वे इस ईश्वर के सिद्धान्त पर विश्वास नहीं करते हैं।
साखी सब्दहि गावत भूले, आतम खबरी न जाना ।
हिन्दू कहै मोहि राम पियारा, तुर्क कहै रहिमाना।
आपस में दोउ लरि लरि मूए, मर्म न काहू जाना॥
अर्थ:- देखा जाता है कि वे अपने गुरुओं द्वारा सिखाये गए मंत्र ही गाते रहते हैं, और आपने भीतर की आत्मा की कोई खबर नहीं रखते हैं । हिन्दू कहते हैं मुझे राम प्यारा है, और मुसलमान कहते हैं मुझे रहिमन प्यारे हैं । और आपस में ही लड़ते-लड़ते मर जाते हैं परंतु इसका हल (मर्म) नहीं निकाल पाते हैं।
भावार्थ:- पाखंडी संत अपने गुरुओं द्वारा सिखाये गए मंत्र ही गाते रहते हैं । वे कभी यह कोशिश नहीं करते हैं कि उनके अंदर क्या खूबियाँ या कमियाँ हैं। वे गुरु के मंत्रों को सच मानते हैं, उन्हे कभी चुनौती नहीं देते हैं। हिन्दू कहते हैं मुझे राम प्यारे हैं, और मुसलमान कहते हैं मुझे रहिमन प्यारे हैं। और इसी कारणवश आपस में लड़ते रहते हैं। वे इस सच्चाई को कभी नहीं समझते हैं कि राम और रहिमन तो एक ही हैं।
घर घर मंतर देत फिरत हैं, महिमा के अभिमाना ।
गुरु के सहित सिख्य सब बूड़े, अंत काल पछिताना ।
केतिक कहौं कहा नहिं मानै, सहजै सहज समाना ॥
अर्थ:- ऐसे पाखंडी संत घर-घर जाकर मंत्र देते रहते हैं और अपने महत्व पर अभिमान करते हैं। ऐसे गुरुओं के शिष्य भी उनके साथ डूब जाते हैं, और अंतकाल में पछताते हैं। कबीरदास जी कहते हैं, हे संतो सुनो, यह सभी भ्रम भुला दो । कितना कहा पर लोग नहीं मानते हैं कि ईश्वर तो सहजता या सरलता में ही समाया हुआ है।
भावार्थ:- ऐसे पाखंडी संत घर-घर जाकर उनके गुरुओं द्वारा सिखाये गए मंत्र बताते रहते हैं और बड़ा घमंड करते रहते हैं। उनके शिष्य भी अपने गुरुओं की भांति ही मिथ्या भक्ति भाव में डूब जाते हैं और सच-झूठ में अंतर करने में असमर्थ रहते हैं और अंतकाल में पश्चाताप करते हैं। संत कबीरदास जी कहते हैं कि उन्होने लोगों को खूब समझाया कि ईश्वर एक है और घर-घर जाकर लोगों को भ्रमित मत करो । परंतु लोग सुनने को तैयार नहीं होते हैं। कबीर दास जी कहते हैं कि ईश्वर तो सहजता या सरलता में ही समाया हुआ है । इसलिए वे संतों को सरल, सुविचार, सद्भाव, और एक ईश्वर को मानने का गुण विकसित करने की सलाह देते हैं।
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